क्या बोलते हैं पहाड़?
- जिया जात
- 22 जुल॰
- 3 मिनट पठन
अपडेट करने की तारीख: 30 जुल॰
उस दिन कुछ अजीब हुआ। क्लास चल रही थी, पंखा घूम रहा था, कई बच्चे थके-थके से लग रहे थे, और सर कुछ समझा रहे थे शायद भूगोल था, शायद इतिहास… पता नहीं। लेकिन मेरे दिमाग में एक अजीब-सा सवाल घूम रहा था। “अगर पहाड़ ज़िंदा होते… तो सबसे पहला शब्द उनके मुँह से क्या निकलता?” ये सवाल मैंने हवा में नहीं, सर से सीधा पूछ डाला। पूरी क्लास मेरी तरफ देखने लगी। कुछ को लगा मैं मज़ाक कर रही हूँ, कुछ को लगा मैं पागल हूँ। लेकिन सर मुस्कुरा दिए। उन्होंने जवाब नहीं दिया। बस कहा "इस सवाल को पकड़ कर रखो… और इसे एक पत्र बना डालो।"

बस वहीं से शुरू हुई ये कहानी। एक सवाल से निकली सोच। सोच से निकली एक चुपचाप चढ़ाई। और चढ़ते-चढ़ते मैं पहुँच गई उन पहाड़ों तक… जो शायद जिंदा नहीं थे, पर फिर भी बहुत कुछ कह रहे थे।
"Mountains of Life."
नाम सुनते ही लगा जैसे किसी पहाड़ की धड़कन सुनाई दी हो। यह ग्रीष्मकालीन इंटर्नशिप अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की तरफ़ से थी एक ऐसा मौका जहाँ कहानियाँ सिर्फ सुनी नहीं जातीं, महसूस की जाती हैं। मैंने अपनी पहली कहानी चुनी चंपावत की। वहाँ की होली, जो सिर्फ़ रंगों की नहीं, किस्सों की भी होती है। जहाँ धूप भी लोकगीतों की तरह बिखरती है, और रात में आग के चारों तरफ़ बैठकर दादी-नानी की बातें पहाड़ों तक पहुँच जाती हैं।

इंटर्नशिप के दौरान, मुझे अलग-अलग स्कूलों से आए बच्चों के साथ सत्र लेने का मौका मिला। ना कोई मंच था, ना औपचारिक कक्षा बस हम, बच्चे, और बीच में ढेर सारी बातें। मैंने बच्चों से कहा, "आज हम पहाड़ों के दोस्त बनने वाले हैं। सोचो अगर वो ज़िंदा होते, तो क्या कहते?" फिर मैंने वो गतिविधि शुरू करवाई जो मैंने खुद डिज़ाइन की थी बच्चों को अपनी कल्पना से पहाड़ों की आवाज़ बनना था। कोई कविता लिख रहा था, कोई पहाड़ को चिट्ठी। कोई पेड़ की तस्वीर में उसके कटने का दर्द भर रहा था। एक बच्चे ने धीरे से कहा “मैं तो सोचता हूँ कि पहाड़ हमें देखकर चुप हो गए होंगे… वो भी तो थकते होंगे ना?” दूसरे ने लिखा “पहाड़ ने कहा: मुझे मत खोदो, मैं पहले ही खो चुका हूँ।” किसी ने सिर्फ तीन शब्द लिखे “अब थक गया।”

उनकी बातें साधारण थीं, पर उनमें वो गहराई थी जो किताबों में नहीं मिलती। उस दिन लगा, जैसे मैं बच्चों से नहीं, पहाड़ों से मिल रही थी। हर जवाब, हर पंक्ति पहाड़ों की आवाज़ लग रही थी। और जब आखिरी में मैंने वही सवाल दोहराया "अगर पहाड़ ज़िंदा होते…" तो मुझे कोई शोर नहीं, बस एक हल्की सी फुसफुसाहट सुनाई दी “शुक्रिया बच्चो, तुमने हमें सुना।”
प्रिय पहाड़,
पता नहीं तुम्हें कभी कोई पत्र मिला है या नहीं। पर आज दिल किया कि लिखूँ, क्योंकि कुछ बातें हैं जो किसी से कही नहीं जा सकतीं… सिर्फ़ तुमसे। जब पहली बार तुम्हारे पास आई, तो लगा जैसे किसी पुराने दोस्त से मिलने आई हूँ जिससे कभी मिला तो नहीं, पर जिसकी मौजूदगी हमेशा महसूस होती रही।

तुम्हें देखना, तुम्हारे पास बैठना… ये किसी यात्रा जैसा नहीं था ये जैसे कोई रुकी हुई बात फिर से चल पड़ी हो। मुझे याद है, दादाजी अब भी तुम्हारे किस्से सुनाते हैं। चाय की हर चुस्की के साथ तुम्हारी कोई पगडंडी, कोई पुराना मोड़ ज़िक्र में आ ही जाता है। वो कहते हैं "पहाड़ सिर्फ़ चढ़ने के लिए नहीं होते, कभी-कभी वो रुकने की सबसे अच्छी जगह भी होते हैं।" अब समझ आया कि उनका मतलब क्या था। तुम्हारे पास आकर सब कुछ धीमा लगने लगता है हवा, धूप, सोच… और शायद हमारी ज़रूरतें भी।


कुछ बच्चों से तुम्हारे बारे में बात की थी। उन्होंने तुम्हें महसूस किया तुम्हारी चुप्पी, थकान, और वो सब कुछ जो तुम कह नहीं पाए। किसी ने सिर्फ़ इतना लिखा "अब थक गया।" और उस एक लाइन में जैसे बहुत कुछ कह दिया गया।
तो ये पत्र बस इतना कहने के लिए है कि अब भी कुछ लोग हैं जो तुम्हारे मौन को भाषा मानते हैं। जो ऊँचाई से ज़्यादा, तुम्हारे धैर्य को देखना चाहते हैं। और जो तुम्हें सिर्फ़ पोस्टकार्ड नहीं, पुराने दोस्त की तरह याद रखते हैं।

अब तो बस यूँ ही कभी धूप में तुम्हारे पास बैठना, कभी पगडंडियों पर तुम्हारे साथ चुपचाप चलना एक सुकून-सा लगता है। तो हाँ, मैं फिर आऊँगी तुम्हारे ही पुराने पत्थरों पर अपने नए किस्से लेकर।
फिर मिलेंगे,
तुम्हारी ही
जिया जात

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